भगवद गीता अध्याय 10.1 || भगवान की विभूति और योगशक्ति के फल || Powerful Bhagavad Gita   

अध्याय दस (Chapter -10)

भगवद गीता अध्याय 10.1 में शलोक 01 से  शलोक 07  तक भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल का वर्णन !

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श्रीभगवान् का ऐश्वर्य

श्रीभगवानुवाच

भूय   एव   महाबाहो   शृणु  मे   परमं   वचः । 

      यत्तेऽहं  प्रीयमाणाय  वक्ष्यामि  हितकाम्यया ॥ १ ॥ 

श्रीभगवान् उवाच   –  भगवान् ने कहा    ;     भूयः  –  फिर  ;   एव  –  निश्चय ही   ;   महा-बाहो  –  हे वलिष्ठ भुजाओं वाले   ;   शृणु   – सुनो   ;   मे   –   मेरा  ;   परमम्   –   परम   ;   वचः  –  उपदेश   ;  यत्  –   जो  ;   ते  –  तुमको   ;   अहम्  –  मैं   ;   प्रीयमाणाय   – अपना प्रिय मानकर  ;   वक्ष्यामि   –  कहता हूँ   ;    हित-काम्यया    –   तुम्हारे हित ( लाभ ) के लिए ।  

श्रीभगवान् ने कहा हे महाबाहु अर्जुन ! और आगे सुनो । चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो , अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा , जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा । 

तात्पर्य :- पराशर मुनि ने भगवान् शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है जो पूर्ण रूप से षड्ऐश्वर्यो- सम्पूर्ण शक्ति , सम्पूर्ण यश , सम्पूर्ण धन , सम्पूर्ण ज्ञान , सम्पूर्ण सौन्दर्य तथा सम्पूर्ण त्याग – से युक्त है , वह भगवान् है । जब कृष्ण इस धराधाम में थे , तो उन्होंने छहों ऐश्वयों का प्रदर्शन किया था , फलतः पराशर जैसे मुनियों ने कृष्ण को भगवान् रूप में स्वीकार किया है ।

अब अर्जुन को कृष्ण अपने ऐश्वय तथा कार्य का और भी गुह्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं । इसके पूर्व सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शक्तियों तथा उनके कार्य करने के विषय में बता चुके हैं । अब इस अध्याय में वे अपने ऐश्वयों का वर्णन कर रहे हैं । पिछले अध्याय में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भक्ति स्थापित करने में अपनी विभिन्न शक्तियों के योगदान की चर्चा स्पष्टतया की है ।

इस अध्याय में पुनः वे अर्जुन को अपनी सृष्टियों तथा विभिन्न ऐश्वयों के विषय में बता रहे हैं । ज्यों – ज्यों भगवान् के विषय में कोई सुनता है , त्यों – त्यों वह भक्ति में रमता जाता है । मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति में भगवान् के विषय में सदा श्रवण करे , इससे उसकी भक्ति बढ़ेगी ।

भक्तों के समाज में ऐसी चर्चाएँ केवल उन लोगों के बीच हो सकती हैं , जो सचमुच कृष्णभावनामृत के इच्छुक हों । ऐसी चर्चाओं में अन्य लोग भाग नहीं ले सकते । भगवान् अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूँकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो , अतः तुम्हारे लाभ के लिए ऐसी बातें कह रहा हूँ । 

न  मे  विदुः  सुरगणाः  प्रभवं  न   महर्षयः । 

       हमादिर्हि  देवानां   महर्षीणां  च  सर्वशः ॥ २ ॥ 

न  –  कभी नहीं  ;   मे   –   मेरे ;   विदुः  –  जानते हैं   ;   सुर-गणा:   –  देवता  ;   प्रभवम्  –  उत्पत्ति या ऐश्वर्य को  ;   न   –  कभी नहीं  ;  महा-ऋषय:  –  बड़े – बड़े ऋषि  ;   अहम्  –  मैं हूँ   ;  आदिः  – उत्पत्ति  ;   हि  –  निश्चय ही   ;   देवानाम्  –  देवताओं का  ;  महा-ऋषीणाम्   –  महर्षियों का  ;   च  –   भी  ;  सर्वशः  –  सभी तरह से । 

न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं , क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप ( उद्गम ) हूँ । 

तात्पर्य :- जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है , भगवान् कृष्ण ही परमेश्वर हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं है , वे समस्त कारणों के कारण हैं । यहाँ पर भगवान् स्वयं कहते हैं कि वे समस्त देवताओं तथा ऋषियों के कारण हैं ।

देवता तथा महर्षि तक कृष्ण को नहीं समझ पाते । जब वे उनके नाम या उनके व्यक्तित्व को नहीं समझ पाते तो इस क्षुद्रलोक के तथाकथित विद्वानों के विषय में क्या कहा जा सकता है ? कोई नहीं जानता कि परमेश्वर क्यों मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर आते हैं और ऐसे विस्मयजनक असामान्य कार्यकलाप करते हैं ।

तब तो यह समझ लेना चाहिए कि कृष्ण को जानने के लिए विद्वत्ता आवश्यक नहीं है । बड़े – बड़े देवताओं तथा ऋषियों ने मानसिक चिन्तन द्वारा कृष्ण को जानने का प्रयास किया , किन्तु जान नहीं पाये । श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट कहा गया है कि बड़े से बड़े देवता भी भगवान् को नहीं जान पाते ।

जहाँ तक उनकी अपूर्ण इन्द्रियाँ पहुँच पाती हैं , वहीं तक वे सोच पाते हैं और निर्विशेषवाद के ऐसे विपरीत निष्कर्ष को प्राप्त होते हैं , जो प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा व्यक्त नहीं होता , या कि वे मनःचिन्तन द्वारा कुछ कल्पना करते हैं , किन्तु इस तरह के मूर्खतापूर्ण चिन्तन से कृष्ण को नहीं समझा जा सकता ।

यहाँ पर भगवान् अप्रत्यक्ष रूप में यह कहते हैं कि यदि कोई परमसत्य को जानना चाहता है तो , ” लो , मैं भगवान् के रूप में यहाँ हूँ । मैं परम भगवान् हूँ । ” मनुष्य को चाहिए कि इसे समझे । यद्यपि अचिन्त्य भगवान् को साक्षात् रूप में कोई नहीं जान सकता , तो भी वे विद्यमान रहते हैं ।

वास्तव में हम सच्चिदानन्द रूप कृष्ण को तभी समझ सकते हैं , जब भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में उनके वचनों को पढ़े । जो भगवान् की अपरा शक्ति में हैं , उन्हें ईश्वर की अनुभूति किसी शासन करने वाली शक्ति या निर्विशेष ब्रह्म रूप में होती है , किन्तु भगवान् को जानने के लिए दिव्य स्थिति में होना आवश्यक है ।

चूँकि अधिकांश लोग कृष्ण को उनके वास्तविक रूप में नहीं समझ पाते , अतः वे अपनी अहेतुकी कृपा से ऐसे चिन्तकों पर दया दिखाने के लिए अवतरित होते हैं । ये चिन्तक भगवान् के असामान्य कार्यकलापों के होते हुए भी भौतिक शक्ति ( माया ) से कल्मषग्रस्त होने के कारण निर्विशेष ब्रह्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । केवल भक्तगण ही जो भगवान् की शरण पूर्णतया ग्रहण कर चुके हैं , भगवत्कृपा से समझ पाते हैं कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं ।

भगवद्भक्त निर्विशेष ब्रह्म की परवाह नहीं करते । वे अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के कारण परमेश्वर की शरण ग्रहण करते हैं और कृष्ण की अहेतुकी कृपा से ही उन्हें समझ पाते हैं । अन्य कोई उन्हें नहीं समझ पाता । अतः वड़े से बड़े ऋषि भी स्वीकार करते हैं कि आत्मा या परमात्मा तो वह है , जिसकी हम पूजा करते हैं ।

यो  मामजमनादिं  च  वेत्ति  लोकमहेश्वरम् । 

       असम्मूढः  स   मर्त्येषु  सर्वपापैः   प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ 

यः  –  जो   ;   माम्  –  मुझको  ;   अजम्  –  अजन्मा   ;  अनादिम्  –  आदिरहित  ;   च  –  भी  ;   वेत्ति   –  जानता है   ;   लोक – लोकों का   ;  महा-ईश्वरम्   –   परम स्वामी   ;   असम्मूढः  – मोहरहित  ;   सः  –  वह  ;   मर्त्येषु   –   मरणशील लोगों में   ;  सर्व-पापैः   –  सारे पापकर्मों से  ;   प्रमुच्यते   –    मुक्त हो जाता है । 

जो मुझे अजन्मा , अनादि , समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है , मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है । 

तात्पर्य :- जैसा कि सातवें अध्याय में ( ७.३ ) कहा गया है- मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये- जो लोग आत्म – साक्षात्कार के पद तक उठने के लिए प्रयत्नशील होते हैं , वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं , वे उन करोड़ों सामान्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं , जिन्हें आत्म साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता ।

किन्तु जो वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को समझने के लिए प्रयत्नशील होते हैं , उनमें से श्रेष्ठ वही है , जो यह जान लेता है कि कृष्ण ही भगवान् , प्रत्येक वस्तु के स्वामी तथा अजन्मा हैं , वही सबसे अधिक सफल अध्यात्मज्ञानी है ।

जब वह कृष्ण की परम स्थिति को पूरी तरह समझ लेता है , उसी दशा में वह समस्त पापकर्मों से मुक्त हो पाता है । यहाँ पर भगवान् को अज अर्थात् अजन्मा कहा गया है , किन्तु वे द्वितीय अध्याय में वर्णित उन जीवों से भिन्न हैं , जिन्हें अज कहा गया है ।

भगवान् जीवों से भिन्न हैं , क्योंकि जीव भौतिक आसक्तिवश जन्म लेते तथा मरते रहते हैं । बद्धजीव अपना शरीर बदलते रहते हैं , किन्तु भगवान् का शरीर परिवर्तनशील नहीं है । यहाँ तक कि जब वे इस लोक में आते हैं तो भी वे उसी अजन्मा रूप में आते हैं ।

इसीलिए चौथे अध्याय में कहा गया है कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण अपराशक्ति माया के अधीन नहीं हैं , अपितु पराशक्ति में रहते हैं । इस श्लोक के वेत्ति लोक महेश्वरम् शब्दों से सूचित होता है कि मनुष्य को यह जानना चाहिए कि भगवान् कृष्ण ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परम स्वामी हैं । वे सृष्टि के पूर्व थे और अपनी सृष्टि से भिन्न हैं ।

सारे देवता इसी भौतिक जगत् में उत्पन्न हुए , किन्तु कृष्ण अजन्मा हैं , फलतः वे ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े – बड़े देवताओं से भी भिन्न हैं और चूँकि वे ब्रह्मा , शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्रष्टा हैं , अतः वे समस्त लोकों के परम पुरुष हैं । अतएव श्रीकृष्ण उस हर वस्तु से भिन्न हैं , जिसकी सृष्टि हुई है और जो उन्हें इस रूप में जान लेता है , वह तुरन्त ही सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाता है ।

परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को समस्त पापकर्मों से मुक्त होना चाहिए । जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है कि उन्हें केवल भक्ति के द्वारा जाना जा सकता है , किसी अन्य साधन से नहीं । मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को सामान्य मनुष्य न समझे । जैसा कि पहले कहा जा चुका है , केवल मूर्ख व्यक्ति ही उन्हें मनुष्य मानता है ।

इसे यहाँ भिन्न प्रकार से कहा गया है । जो व्यक्ति मूर्ख नहीं है , जो भगवान् के स्वरूप को ठीक से समझ सकता है , वह समस्त पापकर्मों से मुक्त है । यदि कृष्ण देवकीपुत्र रूप में विख्यात हैं , तो फिर वे अजन्मा कैसे हो सकते हैं ? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत में भी की गई है जब वे देवकी तथा वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए तो वे सामान्य शिशु की तरह नहीं जन्मे ।

वे अपने आदि रूप में प्रकट हुए और फिर एक सामान्य शिशु में परिणत हो गए । कृष्ण की अध्यक्षता में जो भी कर्म किया जाता है , वह दिव्य है । वह शुभ या अशुभ फलों से दूषित नहीं होता ।

इस जगत् में शुभ या अशुभ वस्तुओं का बोध बहुत कुछ मनोधर्म है , क्योंकि इस भौतिक जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है । प्रत्येक वस्तु अशुभ है , क्योंकि प्रकृति स्वयं ही अशुभ है । हम इसे शुभ मानने की कल्पना मात्र कर सकते हैं ।

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः   क्षमा   सत्यं  दमः  शमः । 

       सुखं  दुःखं  भवोऽभावो  भयं   चाभयमे व च ॥ ४ ॥ 

अहिंसा  समता  तुष्टिस्तपो  दानं  यशोऽयशः । 

      भवन्ति   भावा  भूतानां  मत्त  एव  पृथग्विधाः ॥ ५ ॥ 

बुद्धिः   –   बुद्धि   ;   ज्ञानम्   –   ज्ञान   ;   असम्मोहः  –  संशय से रहित   ;   क्षमा  –  क्षमा   ;   सत्यम्   –   सत्यता    ;   दमः  – इन्द्रियनिग्रह  ;   शमः   –    मन का निग्रह  ;   सुखम्  –  सुख  ;  दुःखम्  –  दुख  ;   भवः  –   जन्म   ;   अभावः   –   मृत्यु   ;   भयम्   – डर   ;   च  –  भी  ;   अभयम्   –   निर्भीकता  ;   एव  –  भी  ;   च   –  तथा   ;   अहिंसा  –  अहिंसा  ;   समता  –  समभाव ;    तुष्टि:  – सन्तोष   ;   तपः –  तपस्या  ;   दानम्   –   दान   ;   यशः  –  यश  ;  अयश   –   अपयश  ; अपकीर्ति   ;   भवन्ति   –  होते है   ;   भावा: –  प्रकृतियाँ   ;   भूतानाम्  –   जीवों की   ;   मत्तः  – मुझसे   ;    एव   –   निश्चय ही  ;   पृथक्-विधा:   –   भिन्न – भिन्न प्रकार से व्यवस्थित । 

बुद्धि , ज्ञान , संशय तथा मोह से मुक्ति , क्षमाभाव , सत्यता , इन्द्रियनिग्रह , मननिग्रह , सुख तथा दुख , जन्म , मृत्यु , भय , अभय , अहिंसा , समता , तुष्टि , तप , दान , यश तथा अपयश – जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं । 

तात्पर्य :- जीवों के अच्छे या बुरे गुण कृष्ण द्वारा उत्पन्न हैं और यहाँ पर उनका वर्णन किया गया है । बुद्धि का अर्थ है नीर – क्षीर विवेक करने वाली शक्ति , और ज्ञान का अर्थ है , आत्मा तथा पदार्थ को जान लेना । विश्वविद्यालय की शिक्षा से प्राप्त सामान्य ज्ञान मात्र पदार्थ से सम्बन्धित होता है , यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार किया गया है ।

ज्ञान का अर्थ है आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के अन्तर को जानना । आधुनिक शिक्षा में आत्मा के विषय में कोई ज्ञान नहीं दिया जाता , केवल भौतिक तत्त्वों तथा शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है । फलस्वरूप शैक्षिक ज्ञान पूर्ण नहीं है । असम्मोह अर्थात् संशय तथा मोह से मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है , जब मनुष्य झिझकता नहीं और दिव्य दर्शन को समझता है ।

वह धीरे – धीरे निश्चित रूप से मोह से मुक्त हो जाता है । हर बात को सतर्कतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए , आँख मूँदकर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहिए । क्षमा का अभ्यास करना चाहिए । मनुष्य को सहिष्णु होना चाहिए और दूसरों के छोटे – छोटे अपराध क्षमा कर देना चाहिए । सत्यम् का अर्थ है कि तथ्यों को सही रूप में अन्यों के लाभ के लिए प्रस्तुत किया जाए ।

तथ्यों को तोड़ना – मरोड़ना नहीं चाहिए । सामाजिक प्रथा के अनुसार कहा जाता है कि वही सत्य बोलना चाहिए जो अन्यों को प्रिय लगे । किन्तु यह सत्य नहीं है । सत्य को सही – सही रूप में बोलना चाहिए , जिससे दूसरे लोग समझ सकें कि सच्चाई क्या है । यदि कोई मनुष्य चोर है और यदि लोगों को सावधान कर दिया जाए कि अमुक व्यक्ति चोर है , तो यह सत्य है ।

यद्यपि सत्य कभी – कभी अप्रिय होता है , किन्तु सत्य कहने में संकोच नहीं करना चाहिए । सत्य की माँग है कि तथ्यों को यथारूप में लोकहित के लिए प्रस्तुत किया जाए । यही सत्य की परिभाषा है । दमः का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषयभोग में न लगाया जाए । इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है , किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है ।

फलतः इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए । इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरुद्ध संयम रखना चाहिए । इसे शम कहते हैं । मनुष्य को चाहिए कि धन – अर्जन के चिन्तन में ही सारा समय न गँवाये । यह चिन्तन शक्ति का दुरुपयोग है । मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए ।

शास्त्रमर्मज्ञों , साधुपुरुषों , गुरुओं तथा महान विचारकों की संगति में रहकर विचार – शक्ति का विकास करना चाहिए । जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा हो वही सुखम् है । इसी प्रकार दुःखम् वह है जिससे कृष्णभावनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो । जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो , उसे स्वीकार करे और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करे ।

भव अर्थात् जन्म का सम्बन्ध शरीर से है । जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है , वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है । इसकी व्याख्या हम भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही कर चुके हैं । जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत में शरीर धारण करने से है । भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है ।

कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता , क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्वस्त रहता है । फलस्वरूप उसका भविष्य उज्ज्वल होता है । किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते , उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा ।

फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं । यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं , तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जानें तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थित रहें । इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे । श्रीमद्भागवत में ( ११.२.३७ ) कहा गया है . भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्- भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है ।

किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं , जो आश्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं , अपितु भगवान् के आध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं , उन्हें कोई भय नहीं रहता । उनका भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल है । यह भय तो उन व्यक्तियों की अवस्था है जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं । अभयम् तभी सम्भव है जब कृष्णभावनामृत में रहा जाए ।

अहिंसा का अर्थ होता है कि अन्यों को कष्ट न पहुँचाया जाय । जो भौतिक कार्य अनेकानेक राजनीतिज्ञों , समाजशास्त्रियों , परोपकारियों आदि द्वारा किये जाते हैं , उनके परिणाम अच्छे नहीं निकलते , क्योंकि राजनीतिज्ञों तथा परोपकारियों में दिव्यदृष्टि नहीं होती , वे यह नहीं जानते कि वास्तव में मानव समाज के लिए क्या लाभप्रद है ।

अहिंसा का अर्थ है कि मनुष्यों को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा पूरा उपयोग हो सके । मानवदेह आत्म – साक्षात्कार के हेतु मिली है । अतः ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो , मानवदेह के प्रति हिंसा करने वाला में है । जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो , वही अहिंसा है ।

समता से राग – द्वेष से मुक्ति द्योतित होती है । न तो अत्यधिक राग अच्छा होता है और न अत्यधिक द्वेष ही । इस भौतिक जगत् को राग – द्वेष से रहित होकर स्वीकार करना चाहिए । जो कुछ कृष्णभावनामृत को सम्पन्न करने में अनुकूल हो , उसे ग्रहण करे और जो प्रतिकूल हो उसका त्याग कर दे । यही समता है । कृष्णभावनामृत युक्त व्यक्ति को न तो कुछ ग्रहण करना होता है , न त्याग करना होता है ।

उसे तो कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने में उसकी उपयोगिता से प्रयोजन रहता है । तुष्टि का अर्थ है कि मनुष्य को चाहिए कि अनावश्यक कार्य करके अधिकाधिक वस्तुएँ एकत्र करने के लिए उत्सुक न रहे । उसे तो ईश्वर की कृपा से जो प्राप्त हो जाए , उसी से प्रसन्न रहना चाहिए । यही तुष्टि है । तपस् का अर्थ है तपस्या । तपस् के अन्तर्गत वेदों में वर्णित अनेक विधि – विधानों का पालन करना होता है – यथा प्रातःकाल उठना और स्नान करना ।

कभी – कभी प्रातःकाल उठना अति कष्टकारक होता है , किन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे जाते हैं वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं । इसी प्रकार मास के कुछ विशेष दिनों में उपवास रखने का भी विधान है । हो सकता है कि इन उपवासों को करने की इच्छा न हो , किन्तु कृष्णभावनामृत के विज्ञान में प्रगति करने के संकल्प के कारण उसे ऐसे शारीरिक कष्ट उठाने होते हैं ।

किन्तु उसे व्यर्थ ही अथवा वैदिक आदेशों के प्रतिकूल उपवास करने की आवश्यकता नहीं है । उसे किसी राजनीतिक उद्देश्य से उपवास नहीं करना चाहिए । भगवद्गीता में इसे तामसी उपवास कहा गया है तथा किसी भी ऐसे कार्य से जो तमोगुण या रजोगुण में किया जाता है , आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती ।

किन्तु सतोगुण में रहकर जो भी कार्य किया जाता है वह समुन्नत बनाने वाला है , अतः वैदिक आदेशों के अनुसार किया गया उपवास आध्यात्मिक ज्ञान को समुन्नत बनाता है । जहाँ तक दान का सम्बन्ध है , मनुष्य को चाहिए कि अपनी आय का पचास प्रतिशत किसी शुभ कार्य में लगाए और यह शुभ कार्य है क्या ? यह है कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य ।

ऐसा कार्य शुभ ही नहीं , अपितु सर्वोत्तम होता है । चूँकि कृष्ण अच्छे हैं इसीलिए उनका कार्य ( निमित्त ) भी अच्छा है , अतः दान उसे दिया जाय जो कृष्णभावनामृत में लगा हो । वेदों के अनुसार ब्राह्मणों को दान दिया जाना चाहिए । यह प्रथा आज भी चालू है , यद्यपि इसका स्वरूप वह नहीं है जैसा कि वेदों का उपदेश है । फिर भी आदेश यही है कि दान ब्राह्मणों को दिया जाये ।

वह क्यों ? क्योंकि वे आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे रहते हैं । ब्राह्मण से यह आशा की जाती है कि वह सारा जीवन ब्रह्मजिज्ञासा में लगा दे । ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः – जो ब्रह्म को जाने , वही ब्राह्मण है । इसीलिए दान ब्राह्मणों को दिया जाता है , क्योंकि वे सदेव आध्यात्मिक कार्य में रत रहते हैं और उन्हें जीविकोपार्जन के लिए समय नहीं मिल पाता ।

वैदिक साहित्य में संन्यासियों को भी दान दिये जाने का आदेश है । संन्यासी द्वार – द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं । वे धनार्जन के लिए नहीं , अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं । वे द्वार – द्वार जाकर गृहस्थों को अज्ञान की निद्रा से जगाते हैं । चूँकि गृहस्थ गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को , कृष्णभावनामृत जगाने को , भूले रहते हैं , अतः यह संन्यासियों का कर्तव्य है कि वे भिखारी बन कर गृहस्थों के पास जाएँ और कृष्णभावनाभावित होने के लिए उन्हें प्रेरित करें ।

वेदों का कथन है कि मनुष्य जागे और मानव जीवन में जो प्राप्त करना है , उसे प्राप्त करे । संन्यासियों द्वारा यह ज्ञान तथा विधि वितरित की जाती है , अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तथा इसी प्रकार के उत्तम कार्यों के लिए दान देना चाहिए , किसी सनक के कारण नहीं । यशस् भगवान् चैतन्य के अनुसार होना चाहिए । उनका कथन है कि मनुष्य तभी प्रसिद्धि ( यश ) प्राप्त करता है , जब वह महान भक्त के रूप में जाना जाता हो ।

यही वास्तविक यश है । यदि कोई कृष्णभावनामृत में महान बनता है और विख्यात होता है , तो वही वास्तव में प्रसिद्ध है । जिसे ऐसा यश प्राप्त न हो , वह अप्रसिद्ध है । ये सारे गुण संसार भर में मानव समाज में तथा देवसमाज में प्रकट होते हैं । अन्य लोकों में भी विभिन्न तरह के मानव है और ये गुण उनमें भी होते हैं । तो , जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में प्रगति करना चाहता है , उसमें कृष्ण ये सारे गुण उत्पन्न कर देते हैं , किन्तु मनुष्य को तो इन्हें अपने अन्तर में विकसित करना होता है ।

जो व्यक्ति भगवान् की सेवा में लग जाता है , वह भगवान् की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को विकसित कर लेता है । हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा देखते हैं उसका मूल श्रीकृष्ण हैं । इस संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं , जो कृष्ण में स्थित न हो । यही ज्ञान है । यद्यपि हम जानते हैं कि वस्तुएँ भिन्न रूप से स्थित हैं , किन्तु हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सारी वस्तुएँ कृष्ण से ही उत्पन्न हैं । 

महर्षयः    सप्त     पूर्वे     चत्वारो      मनवस्तथा । 

       मद्भावा  मानसा  जाता  येषां  लोक  इमाः  प्रजाः ॥ ६ ॥ 

महा-ऋषय:   –   महर्षिगण   ;   सप्त  –  सात   ;   पूर्वे  –  पूर्वकाल में  ;   चत्वारः  –  चार  ;  मनवः  –  मनुगण    ;    तथा   –  भी ;   मत्-भावाः  –   मुझसे उत्पन्न  ;   मानसाः   –   मन से   ;   जाता   – उत्पन्न  ;   येषाम्  –  जिनकी   ;  लोके   –  संसार में   ;  इमाः  –  ये सव  ;   प्रजाः  –  सन्तानें , जीव । 

सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु ( मानवजाति के पूर्वज ) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं । 

तात्पर्य :- भगवान् यहाँ पर ब्रह्माण्ड की प्रजा का आनुवंशिक वर्णन कर रहे हैं । ब्रह्मा परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न आदि जीव हैं , जिन्हें हिरण्यगर्भ कहा जाता है । ब्रह्मा से सात महर्षि तथा इनसे भी पूर्व चार महर्षि- सनक , सनन्दन , सनातन तथा सनत्कुमार एवं सारे मनु प्रकट हुए ।

ये पच्चीस महान ऋषि ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के धर्म – पथप्रदर्शक कहलाते हैं । असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य लोक हैं और प्रत्येक लोक में नाना योनियाँ निवास करती हैं । ये सब इन्हीं पच्चीसों प्रजापतियों से उत्पन्न हैं । कृष्ण की कृपा से एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करने के बाद ब्रह्मा को सृष्टि करने का ज्ञान प्राप्त हुआ ।

तव ब्रह्मा से सनक , सनन्दन , सनातन तथा सनत्कुमार उत्पन्न हुए । उनके बाद रुद्र तथा सप्तर्षि और इस प्रकार फिर भगवान् की शक्ति से सभी ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का जन्म हुआ । ब्रह्मा को पितामह कहा जाता है और कृष्ण को प्रपितामह – पितामह का पिता । इसका उल्लेख भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय ( ११.३ ९ ) में किया गया है । 

एतां  विभूतिं  योगं  च  मम   यो  वेत्ति  तत्त्वतः ।

        सोऽविकल्पेन   योगेन   युज्यते   नात्र  संशयः ॥ ७ ॥ 

एताम्  –  इस सारे  ;   विभूतिम्  –  ऐश्वर्य को   ;   योगम्   –  योग को  ;   च  –  भी   ;   मम   –  मेरा  ;   यः  –  जो कोई  ;   वेत्ति   –   जानता है   ;   तत्त्वतः   –  सही-सही  ;   सः  –  वह  ;   अविकल्पेन  –   निश्चित रूप से   ;   योगेन  –  भक्ति से   ;   युज्यते  –  लगा रहता है  ;  न  –  कभी नहीं  ;   अत्र   – यहाँ   ;   संशयः  –  सन्देह , शंका । 

जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है , वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । 

तात्पर्य :- आध्यात्मिक सिद्धि की चरम परिणति है , भगवद्ज्ञान । जब तक कोई भगवान् के विभिन्न ऐश्वयों के प्रति आश्वस्त नहीं हो लेता , तब तक भक्ति में नहीं लग सकता । सामान्यतया लोग इतना तो जानते हैं कि ईश्वर महान है , किन्तु यह नहीं जानते कि वह किस प्रकार महान है ।

यहाँ पर उसका विस्तृत विवरण दिया गया है । जब कोई यह जान लेता है कि ईश्वर कैसे महान है , तो वह सहज ही शरणागत होकर भगवद्भक्ति में लग जाता है । भगवान् के ऐश्वर्यों को ठीक से समझ लेने पर शरणागत होने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता ।

ऐसा वास्तविक ज्ञान भगवद्गीता , श्रीमद्भागवत तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों से प्राप्त किया जा सकता है । इस ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विभिन्न लोकों में अनेक देवता नियुक्त हैं , जिनमें से ब्रह्मा , शिव , चारों कुमार तथा अन्य प्रजापति प्रमुख हैं । ब्रह्माण्ड की प्रजा के अनेक पितामह भी हैं और वे सब भगवान् कृष्ण से उत्पन्न हैं ।

भगवान् कृष्ण समस्त पितामहो के आदि पितामह हैं । ये रहे परमेश्वर के कुछ ऐश्वर्य । जब मनुष्य को इन पर अटूट विश्वास हो जाता है , तो वह अत्यन्त श्रद्धा समेत तथा संशयरहित होकर कृष्ण को स्वीकार करता है और भक्ति करता है ।

इस प्रकार भगवद गीता अध्याय 10 में भगवान् की प्रेमाभक्ति में रुचि बढ़ाने के लिए ही इस विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है । कृष्ण की महानता को समझने में उपेक्षा भाव न वरते , क्योंकि कृष्ण की महानता को जानने पर ही एकनिष्ठ होकर भक्ति की जा सकती है ।

भगवद गीता अध्याय 10.1~ भगवान की विभूति और योगशक्ति जानने के फल का वर्णन / Powerful Bhagavad Gita bibhuti or yogshakti Ch10.1
भगवद गीता अध्याय 10.1

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