अध्याय एक (Chapter-1)
भगवद गीता अध्याय 1.4 ~ भगवान कृष्ण नामों की व्याख्या में शलोक 28 से शलोक 47 तक भगवान कृष्ण नामों की व्याख्या और वर्णन किया गया है !
भगवद गीता अध्याय 1.4
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥ २८ ॥
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; दृष्ट्वा – देख कर ; इमम् – इन सारे ; स्वजनम् – सम्बन्धियों को ; कृष्ण – है कृष्ण ; युयुत्सम् – युद्ध की इच्छा रखने वाले , समुपस्थितम् – उपस्थितः ; सीदन्ति – कॉप रहे हैं ; मम – मेरे ; गात्राणि – शरीर के अंग ; मुखम् – मुंह ; च – भी ; परिशुष्यति – सुख रहा है ।
अर्जुन ने कहा है कृष्ण ! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है ।
तात्पर्य : यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में वे सारे सद्गुण रहते हैं जो सत्पुरुषों या देवताओं में पाये जाते हैं जबकि अभक्त अपनी शिक्षा तथा संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इन ईश्वरीय गुणों से विहीन होता है । अतः स्वजनों , मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभत हो गया , जिन्होंने परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया था
जहाँ तक उसका अपने सैनिकों का सम्बन्ध था , वह उनके प्रति प्रारम्भ से दयालु था ,किन्तु विपक्षी दल के सैनिकों की आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था । और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कंपन होने लगा और मुंह सुख गया । उन सबको युद्धाभिमुख देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ ।प्रायः सारा कुटुम्ब , अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे ।
यधपि इसका उल्लेख नहीं है , किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुँह सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था ।अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु हृदय की कोमलता के कारण धे जो भगवान् के शुन्द्र भक्त का लक्षण है । अतः कहा गया है —
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्याकंचना सर्वगुणस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभक्तस्य कुतो महगुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः । ।
” जो भगवान के प्रति अविचल भक्ति रखता है उसमें देवताओं के सदगण पाये जात ह । किन्तु जो भगवद्भक्त नहीं है उसके पास भौतिक योग्यताएं ही रहती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता । इसका कारण यह है कि वह मानसिक धरातल पर मंडराता रहता है और ज्वलन्त माया के द्वारा अवश्य ही आकृष्ट होता है । ” ( भागवत ५ . १८. १२)
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ २९ ॥
वेपथुः – शरीर का कम्पन ; च – भी ; शरीरे – शरीर में ; मे – मरे ; रोम – हर्षः – रोमांच ; च – भी जायते – उत्पन्न हो रहा है ; गाण्डीवम् – अर्जुन का धनुष , गाण्डीव , वंसते – छूट या सरक रहा है ; हस्तात् – हाथ से ; त्वक् – त्वचा ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; परिवाते – जल रही है ।
मेरा सारा शरीर काँप रहा है , मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं , मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है ।
तात्पर्य : शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते है । ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भव उत्पन्न होने पर होता है । दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता ।
इस अवस्था में अजुन क जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन को हानि के कारण हैं । अन्य लक्षणों से भी यह स्पष्ट है , वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी । ये सब लक्षण देहात्मयुद्धि से जन्य है ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ३० ॥
न – नहीं , च – भी , शक्नोमि – समर्थ हू ; अवस्थातुम् – खडे होने में ; अपति – भूलता हुआ ; इव – सदृशः च – तथा ; मे – मेरा ; मन : – मन ; निमित्तानि – कारण ; च – भी ; पश्यामि – देखता हूँ ; विपरीतानि – बिल्कुल उल्नटा ; केशव – हे केशी अपुर के मारने वाले ( कृष्ण ) |
मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ । मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है । हे कृष्ण ! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं ।
तात्पर्य : अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की इस दुर्वलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी । भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है । भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात – ( भागवत ११ . २. ३७) – ऐसा भय तथा मानसिक असंतुलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं ।
अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी – यह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा । निमित्तानि विपरीतानि शब्द महत्त्वपूर्ण है । जय मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है तो वह सोचता है ” में यहाँ क्यों हूँ ? ” प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है । किसी को भी परमात्मा में रुचि नहीं होती ।
कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है । मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्य या कृष्ण में निहित है । वद्धजीव इस भूल जाता है इसीलिए उस भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं । अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण वन सकती है ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काळे विजयं कृष्ण नच राज्यं सखानिच ॥ ३१ ॥
न – न तो ; च – भी ; श्रेय : – कल्याण ; अनुपश्यामि – पहले से देख रहा हूँ ; हत्या – मार कर ; स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को ; आहवे – युद्ध में ; न – न तो ; काळे – आकांक्षा करता ; विजयम् – विजय ; कृष्ण – हे कृष्ण ; न – न ; च – भी ; राज्यम् – राज्य , सुखानि – उसका मन ; च – भी ।
हे कृष्ण इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मझे कोई अवार्ड दिखती है और न , में उससे किसी प्रकार की विजय , राज्य या सुख की इच्छा रखता हुँ |
तात्पर्य : यह जाने विना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु ( या कृष्ण ) में है सारे वन्यजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोच कर आकर्षित होते हैं कि वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न रहेंगे । ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते है ।
अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था । कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं । ये है – एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा संन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है ।
अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है – अपने सम्बन्धियों को बात तो छोड़ दें । वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा , अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है , जिस प्रकार कि भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता ।
उसने तो बन जाने का निश्चय कर लिया है जहाँ वह एकांत में निराशापूर्ण जीवन काट सके । किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवननिवाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई । अन्य कार्य नहीं कर सकता । किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है ?
उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अबसर है कि अपने बन्धु – वान्धवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे जिसे वह करना नहीं चाह रहा है । इसीलिए वह अपने को जंगल में एकान्तवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने के योग्य समझता है ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगेर्जीवितेन वा ।
येषामथे काइक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२ ॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३ ॥
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४ ॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रात्रः का प्रीतिः स्याजनार्दन ॥ ३५ ॥
किम् – क्या लाभः ना – हमको ; राज्येन – राज्य में ; गोविन्द – कृष्ण ; किम् – क्या ; भोगे: – भोग से ; जीवितेन – जीवित रहने से ; वा – अथवा ; न: – हमारे द्वारा ; राज्यम् – राज्य , भौगा – भौतिक भोग ; सुखानि – समस्त सुख ; च – भी ; ते – वे ; अवस्थिता – स्थित ; प्राणान् – जीवन को ; त्यक्त्वा – त्याग कर ,धनानि – धन को ; च – भी ; आचार्या: – गुरुजन ; पितर : – पितृगण , पुत्राः – पुत्रगण , तथा – और ,
एव – निश्चय ही ; च – भी पितामहा – पितामह , मातृला: – मामा लोग , श्वशुराः – श्वशुर , पोत्राः – पौत्र , शयाला: – साले ; सम्बन्धिनः – सम्बन्धी ; तथा – तथा ; एतान् – ये सब ; न – कभी नहीं ; हन्तुम – मारना ; अपि – भी ; मधुसूदन – हे मधु असुर के मारने वाले ( कृष्ण ) ; अपि – तो भी ; त्रै-लोक्य – तीनों लोकों के ; राज्यस्य – राज्य के ; हेतोः – विनिमय में ; किम् नु – क्या कहा जाय ; मही – कृते – पृथ्वी के लिए ; निहत्य – मारकर ; धार्तराष्ट्रान – धृतराष्ट्र के पुत्रों को ; नः – हमारी ; का – क्या ; प्रीतिः – प्रसन्ता ; स्यात् – होगी ; जनार्दन – हे जीवों के पालक |
हे गोविन्द ! हमें राज्य , मुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े है । हे मधुसूदना जब गुरुजन , पितृगण , पुत्रगण , पितामह , मामा , ससुर , पोत्रगण , साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर है और मेरे समक्ष खड़े हैं ।
तो फिर में इन सबको क्यों मारना चाहूँगा , भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें ? हे जीवों के पालका में इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं , भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हो , इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें । भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कोन सी प्रसन्नता मिलेगी ?
तात्पर्य : अर्जन ने भगवान कृष्ण को गोबिन्द कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौवों तथा इन्द्रियों की समस्त प्रसन्नता के विषय है । इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जन सकेंत करता है कि कृष्ण यह समझे कि अर्जुन की इन्द्रियाँ कैसे तृप्त होंगी ।
किन्तु गोविन्द हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए नहीं हैं । हाँ , यदि हम गोविन्द की इन्द्रियों का तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ स्वतः तुष्ट होती हैं । भोतिक दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है कि ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करें । किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीं तक करते हैं ।
जितनी के वे पात्र होते हैं उस हद तक नहीं जितना वे चाहते हैं । किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात् जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिन्ता न करके गोविन्द की इन्द्रियों की तुष्टि करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । यहाँ पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ स्नेह आशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण है ।
अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है ।हर व्यक्ति अपने वेभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे ओर वह विजय के पश्चात् उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा । भोतिक जीवन का यह सामान्य लेखाजोखा है ।
किन्तु आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वथा मित्र होता है । चूकि भक्त भगवान् की इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है अतः भगवद् – इच्छा होने पर वह भगवान् की सेवा के लिए सारे ऐेश्वर्य स्वीकार कर सकता है किन्तु यदि भगवद – इच्छा न हो तो वह एक पैसा भी ग्रहण नहीं करता । अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारना नहीं चाह रहा था और यदि उसको मारने की आवश्यकता हो तो अर्जुन की इच्छा थी कि कृष्ण स्वयं उनका वध करें ।
इस समय उसे यह पता नहीं है कि कृष्ण उन सबों को युद्धभूमि में आने के पूर्व ही मार चुके है और अब उसे निमित्त मात्र बनना है । इसका उद्घाटन अगले अध्याय में होगा । भगवान का असली भक्त होने के कारण अर्जुन अपने अत्याचारी बन्धुबान्धवों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था किन्तु यह तो भगवान की योजना थी कि सबका वध हो ।
भगवदभक्त दुष्टों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते किन्तु भगवान् दुष्टो द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन नहीं कर पाते । भगवान् किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते है किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुंचाता है तो ये उसे क्षमा नहीं करते । इसीलिए भगवान इन दुराचारियों का वध करने के लिए उपतघे यद्यपि अर्जुन उन्हें क्षमा करना चाहता था |
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।
तस्मानार्हावयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान् ।
स्वजनं हिकथं हत्वा सुखिनःस्याममाधव ॥ ३६ ॥
पापम् – पाप ; एव – निश्चय ही ; आश्रयेत् – लगेगा ; अस्मान् – हमको ; हत्वा – मारकर एतान् – इन सब ; आततायिन – आततापियों को ; तस्मात् – अतः ; न – कभी नहीं; अर्हाः – योग्य ; वयम् – हमः ; हन्तुम् – मारने के लिए , धृतराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को स – बान्धवान् – उनके मित्रों सहित ; स्व जनम् – कुटुम्बियों को ; हि – निश्चय ही ; कथम् कैसे ; हत्वा – मारकर ; सुखिनः – सुखी ; स्याम – हम होंगे ; माधव – हे लक्ष्मीपति कृष्ण।
यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा , अतः यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें । हे लक्ष्मीपति कृष्ण ! इससे हमें क्या लाभ होगा ? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं ।
तात्पर्य : वेदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – ( १ ) विष देने वाला , ( २ ) घर में अग्नि लगाने वाला , ( ३ ) घातक हथियार से आक्रमण करने वाला , ( ४ ) धन लूटने वाला , ( ५ ) दूसरे की भूमि हड़पने वाला , तथा ( ६ ) पराई स्त्री का अपहरण करने वाला । ऐसे आततायियों का तुरन्त वध कर देना चाहिए क्योंकि इनके बध से कोई पाप नहीं लगता ।
आततायियों का इस तरह वध करना किसी सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है किन्तु अर्जुन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है । वह स्वभाव से साधु है अतः वह उनक साथ साधुवत व्यवहार करना चाहता था । किन्तु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है । यद्पि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिए किन्तु उसे कायर नहीं होना चाहिए ।
उदाहरणार्थ , भगवान राम इतने साधु थे कि आज भी लोग रामराज्य में लाना चाहते हैं किन्तु उन्होंने कभी कायरता प्रदर्शित नहीं की । रावण आततायी था क्योंकि वह राम की पत्नी सीता का अपहरण करके ले गया था किन्तु राम ने उस रेसा पाठ पढ़ाया जो विश्व इतिहास में बेजोड है । अर्जुन के प्रसंग में विशिष्ट प्रकार के आततायियों से भेंट होती है – ये उसके निजी पितामह , आचार्य , मित्र , पुत्र , पोत्र इत्यादि ।
इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति वह सामान्य आततापियों जैसा कटु व्यवहार न करे । इसके अतिरिक्त , साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है । साधु पुरुषों के लिए ऐसे आदेश किसी राजनीतिक आपातकाल से अधिक महत्व रखते हैं । इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनीतिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टि से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयस्कर होगा ।
अतः क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा । अन्ततः जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थायी नहीं है तो फिर अपने स्वजनों को मार कर वह अपने ही जीवन तथा शाश्वत मुक्ति को संकट में क्यों डाले ? अर्जुन द्वारा ‘ कृष्ण ‘ को ‘ माधव ‘ अथवा लक्ष्मीपति ‘ के रूप में सम्बोधित करना भी सार्थक है ।
यह लक्ष्मीपत्ति कृष्ण को यह बताना चाह रहा था कि ये उसे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें , जिससे अनिष्ट हो । किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते , भक्तों का तो कदापि नहीं ।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मात्रिवर्तितम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३८ ॥
यदि – यदि ; अपि – भी ; एते – ये ; न – नहीं ; पश्यन्ति – देखते हैं ; लोभ – लोभ से ; उपहत – अभिभुत: ; चेतसः – चित्त बाले ; कुल – क्षय – कुल – नाश ; कृतम् – किया हुआ ; दोषम् – दोष को ; मित्र – द्रोहे – मित्रों से विरोध करने में ; च – भी ; पातकम् – पाप को ;
कधम् – क्यों ; न – नहीं ; ज्ञायेम – जानना चाहिए ; अस्माभिः – हमारे द्वारा ; पापात – पापों से ; अस्मात् – इन ; निवर्तितम् – बन्द करने के लिए ; कुल क्षय – वंश का नाशः कृतम् – हो जाने पर ; दोषम् – अपराधः ; प्रपश्यतिः – देखने वालों के द्वारा ; जनार्दन – हे कृष्ण !
है जनार्दन ! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त बाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते किन्तु हम लोग , जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं . ऐसे पापकों में क्यों प्रवृत्त हों ?
तात्पर्य : क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमन्त्रण दिये जाने पर मना करे । ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दर्योधन के दल ने ललकारा था । इस प्रसंग में अर्जन ने विचार किया कि हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामों के प्रति अनभिज्ञ है ।
किन्तु अर्जुन को तो दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता । यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते । पक्ष विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया ।
कलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्म न कुलं कृत्समधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ३९ ॥
प्रगायन्ति – विनष्ट हो जाती ; कुल-धर्माः – पारिवारिक परंपराए ; मना – मान ; बर्म–नष्टे – नष्ट होने पर ; अभिभवति – वदल देता है ; उत – कहा जाता है ।
कुल का नाश होने पर सनातन कुल – परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाना है ।
तात्पर्य : वर्णाश्रम व्यवस्था में धार्मिक परम्पराओं के अनेक नियम है जिनकी सहायता से परिवार सदस्य ठीकठाम से उति करके आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि कर सकते हैं । परिवार में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कारों के लिए वयोवृद्ध लोग उत्तरदायी ।
किन्तु इन बयोध्यों की मृत्यु के पश्चात् संस्कार सम्बन्धी पारिवारिक परम्पराएँ । स्वाती है और परिवार के जो तरुण सदस्य बचे रहते हैं वे अधर्ममय व्यसनों में अगर स मुक्ति लाभ में बंचित ह सकते हैं । अतः किसी भी कारणवश परिवार के बयोपदों का बध नहीं होना चाहिए ।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दृष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥ ४० ॥
अधर्मा – अधर्म ; अभिभवात – प्रमुख होने से ; प्रष्यन्ति – दषित हो जाती ; कुल-स्त्रीयां – कुल की स्त्रीयां ; दृष्टास – दुषित होने से ; वाष्र्णेय – हे दृष्णिवंशी ।
हे कृष्ण ! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कल की स्त्रियों दषित हो जाती और स्त्रीत्व के पतन से है वृष्णिवंशी अवांछित सन्तान उत्पन्न होती है !
तात्पर्य : जीवन में शांति, सुख तथा आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धान्त मानव समाज जयी सन्तान का होना है । वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार बनाये गये थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी सन्तान उत्पन्न हो ।
ऐसी सन्तान समाज में स्त्री के सतीत्ब और उसकी निष्ठा पर निर्भर करती है । जिस प्रकार सालय लता कुमार्गगामी बन जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी पतनोन्मुखी होती हैं । अतः वालको तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है ।
स्त्रियों प्रथाओं में संलग्न रहने पर व्यभिचारिणी नहीं होगी । चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियों अधिक बुद्धिमान नहीं होती | अतः वे विश्वसनीय नहीं हैं इसलिए उन्हें विविध कुल – परम्पराओं में व्यस्त रहना चाहिए और इस तरह उनके सतीत्व से ऐसी सन्तान जन्मगी जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने का योग्य होगी ।
ऐसे वर्णाश्रम – धर्म विनाश से या स्वाभाविक है कि स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक पुरुषों से मिल सकेगी और व्यभिचार को प्रश्चय मिलेगा जिससे अवांछित सन्तान उत्पन्न होगी । निठल्ले लोग भी समाजमव्यभिचार को प्रेरित करते है और इस तरह अवांछित बच्चों की वाढ़ आ जाती है । जिससे मानव जाति पर यह और महामारी का सकट छा जाता है ।
सङ्करो नरकायेव कुलमानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो होषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१ ॥
सङ्करो – ऐसे अवांछित बच्च ; च – भी ; पतन्ति – गिर जाते हैं , पितरः – पितृगण : हि – निश्चयी ; एषाम् – इनके , लुप्त – समाप्त ; पिण्ड – पिण्ड अर्पण की ; उदक – तथा जल की ;
अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है । ऐसे पतित कुलों के पुरखे ( पितर लोग ) गिर जाते है क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की कियाएँ समाप्त हो जाती है ।
तात्पर्य : सकाम कर्म के विधिविधानों के अनुसार कल के पितरों को समय – समय पर जल तथा पिण्डदान दिया जाना चाहिए । यह दान विष्ण पूजा द्वारा किया जाता है क्योंकि विष्णु को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट भाग ( प्रसाद ) के खाने से सारे पापकर्मों से उदार हो जाता है ।
कभी – कभी पित्तरगण विविध प्रकार के पापकर्मों से प्रस्त हो सकते हैं और कभी – कभी उनमे से कुछ को स्थूल शरीर प्राप्त न हो सकने के कारण उन्हें प्रेतों के रूप में सूक्ष्म शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । अतः जब बंशजों द्वारा पितरों को बचा प्रसाद अर्पित किया जाता है तो उनका प्रेतयोनि या अन्य प्रकार के दुखन्य जीवन से उदार होता है ।
पितरों को इस तरह की सहायता पहुंचाना कुल परम्परा है और जो लोग भक्ति का जीवन – यापन नहीं करते उन्हें ये अनुष्ठान करने होते हैं । केवल भक्ति करने में मनुष्य सेकड़ों क्या हजारों पितरों को ऐसे संकटों से उतार सकता है । भागवत में ( ११ . ५ . ४१ ) कहा गया है –
देवर्षि भूताप्तनणां पितृणां न किंकरी नायमृणीच राजन ।
सर्वात्मना शरण शरण्यं गतो मुकुन्द परिनत्य कर्तम् ।
“जो पुरुष अन्य समस्त कर्तव्यों को त्याग कर मुक्ति के दाता मुकुन्द के चरणकमलों शरण ग्रहण करता है और इस पथ पर गम्भीरतापूर्वक चलता है वह देवताओं , मुनियों , सामान्य जीवों , स्वजनों , मनुष्यों या पितरों के प्रति अपने कर्तव्य या त्र्टण से मुक्त हो जाता है । ” श्रीभगवान की सेवा करने से ऐसे दायित्व अपने आप पूरे हो जाते है |
दोघेरतेः कुलमानां वर्णसङ्करकारकः ।
उत्साश्चन्ते जातिधर्माः कुलधर्माच शाश्वताः ॥ ४२ ॥
दोषः – ऐसे दोषों से ; एतेः – इन सब ; कुलघानाम् – परिवार नष्ट करने वाला का ‘ वर्ण सङ्कर – अवांछित संतानों के कारक ; उत्साद्यन्ते – नष्ट हो जाते हैं ; जाति धर्माः – सामुदाधिक योजनाएं ; कुल – धर्माः – पारिवारिक परम्पराएँ ; च – भी ; शाश्वताः – सनातन
जो लोग कुल परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कमो से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण – कार्य विनष्ट हो जाते हैं ।
तात्पर्य : सनातन – धर्म या वर्णाश्रम – धर्म द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्णो के लिए सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण – कार्य इसलिए नियोजित है कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके । अतः समाज के अनुत्तरदायी नायको द्वारा सनातन – धर्म परम्परा के विखण्डन से उस समाज में अव्यवस्था फेलती है , फलस्वरूप लोग जीवन के उदेश्य विष्णु को भूल जाते हैं । ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं ।
उत्सनकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४३ ॥
उत्सन – विनष्ट ; कल – धर्माणाम् – पारिवारिक परम्परा वाले ; मनष्याणाम – मनुष्यों का ; जनार्दन – हे कृष्ण ; नरके – नरक में ; नियतम – सवेवः ; वास : – निवास ; भवति – होता है ; इति – इस प्रकार ; अनुशश्रम – गुरु – परम्परा से मैंने सुना है ।
हे प्रजापालक कृष्ण ! मैंने गुरु – परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं , वे सदैव नरक में वास करते है ।
तात्पर्य : अर्जुन अपनं तर्को को अपने निजी अनुभव पर न आधारित करके आचार्यों से जो सुन रखा है उस पर आधारित करता है । वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है । जिस व्यक्ति न पहले से ज्ञान प्राप्त कर रखा है उस व्यक्ति की सहायता के बिना काई भी वास्तविक ज्ञान तक नहीं पहुंच सकता ।
वर्णाश्रम – धर्म की एक पद्धति के अनुसार मृत्यु के पूर्व मनुष्य को पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त करना होता है । जो पापात्मा है उस इस विधि का अवश्य उपयोग करना चाहिए । ऐसा किये बिना मनुष्य निश्चित रूप से नरक भेजा जायेगा जहाँ उसे अपने पापकर्मों के लिए कष्टमय जीवन विताना होगा ।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेनहन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४ ॥
अहो – आह ; बत – कितना आश्चर्य है यह ; महत् – महान ; पापम् – पाप कर्म , कर्तुम् – करने के लिए ; व्यवसिता – निश्चय किया है ; बयम् – हमने ; यत् – क्योंकि राज्य – सुख – लोभेन – राज्य – सुख के लालच में आकर ; हन्तुम् – मारने के लिए स्वजनम् – अपने सम्बन्धियों को ; उद्यताः – तत्पर ।
ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं । राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं
तात्पर्य : स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई , बाप या मां के वध जैस पापकर्मों में प्रवृत्त हो सकता है । विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । किन्तु भगवान का साधु भक्त होने के कारण अर्जन सदाचार के प्रति जागरुक है । अतः बह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है ।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्दुस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४५ ॥
यदि – यदि ; माम् – मुझको ; अप्रतीकारम् – प्रतिरोध करने के कारण ; अवास्त्रम् – विना इथियार है ; शत्र – पाणयः – शम्बधारी ; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र ; रणे – युद्धभूमि में ; हन्युः – मारें ; तत् – वहः ; में – मेरे लिए ; क्षेम – तरम् – श्रेयस्कर ; भवत् – होगा ।
यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वाले को मारें तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ।
तात्पर्य : क्षत्रियों के युद्ध नियमों के अनुसार ऐसी प्रथा है कि निहत्थे तथा विमुख शत्रु पर आक्रमण न किया जाय । किन्तु अर्जुन ने निश्चय किया कि शत्रु भले ही इस विषम अवस्था में उस पर आक्रमण कर दें . किन्तु वह युद्ध नहीं करेगा । उसने इस पर विचार नहीं किया कि दूसरा दल युद्ध के लिए कितना उद्यत है । इन सब लक्षणों का कारण उसकी दयार्द्रता है जो भगवान के महान भक्त होन के कारण उत्पन्न हुई ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविनमानसः ॥ ४६ ॥
सञ्जय उवाच – संजय ने कहा ; एवम् – इस प्रकार ; उक्त्वा – कहकर ; अर्जुन : – अर्जुन ; संख्ये – युद्धभूमि में ; रथ – रथ के ; उपस्थे – आसन पर ; उपाविशत् – पुनः बैठ गया ; विसृज्य – एक ओर रखकर ; स – शरम् – वाणों सहित ; चापम् – धनुष को ; शोक – शोक से ; संविण ; संतप्त;, उग्निः – मानस : – मन के भीतर ।
संजय ने कहा युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया ।
तात्पर्य : अपने शत्रु की स्थिति का अवलोकन करते समय अर्जुन रथ पर खड़ा हो गया था , किन्तु यह शोक से इतना संतप्त हो उठा कि अपना धनुष वाण एक ओर रख कर रव के आसन पर पुनः बैठ गया । ऐसा दयालु तथा कोमलहृदय व्यक्ति , जो भगवान को सेवा में रत हो , आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य है ।
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