भगवद गीता अध्याय 1.3 || अर्जुन के शस्त्रों की परीक्षा || Powerful Bhagavad Gita

अध्याय एक (Chapter -1)

भगवद गीता अध्याय 1.3 ~ अर्जुन के शस्त्रों की परीक्षा मेंशलोक  20  से  शलोक 27 तक अर्जुन  के  शस्त्रों  की परीक्षा का वर्णन  किया  गया  है!

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।

हृषीकेशं      तदा    वाक्यमिदमाहमहीपते ॥ २०॥

अथ – तत्पश्चात   ;    व्यवस्थितान – स्थित ;    दृटा – देखकर  ;  धार्तराष्ट्रान – धृतराष्ट्र के पुत्रों को  ;  कपिध्वजः  – जिसका पताका पर हनुमान अंकित है ;   प्रवृत्ते – कटिवद   ; शख – सम्पाते – बाण चलाने के लिए   ;   धनु: – धनुष  ; उद्यम्य – ग्रहण करके उठाकर   ;   पाण्डवः – पाण्डपुत्र ( अर्जुन ) ने   ; हृषीकेशम  – भगवान कृष्ण से  ;   तदा – उस समय ;  वाक्यम् – बचन ;    इदम – ये   ;  आह – कहे   ;   मही-पते – है राजा ।

उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ । हे राजन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे ।

तात्पर्य :   युद प्रारम्भ होने ही वाला था । उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि पाण्डवों की सेना की अप्रत्याशित व्यवस्था से धृतराष्ट्र के पुत्र बहुत कुछ निरुत्साहित थे क्योंकि युद्धभूमि में पाण्डवों का निर्देशन भगवान कृष्ण के आदेशानुसार हो रहा था ।  

अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिन्ह भी विजय का सूचक है क्योंकि हनुमान ने राम तथा रावण बुद्ध में राम की सहायता की थी जिससे राम विजयी हुए थे । इस समय अर्जुन की सहायता के लिए उनके रथ पर राम तथा हनुमान दोनों उपस्थित थे   भगवान् कृष्ण साक्षात् राम है ओर जहाँ भी राम रहते हैं वहाँ उनका नित्य सेवक हनुमान होता है तथा उनकी नित्यसंगिनी , वैभव की देवी सीता उपस्थित रहती है ।

अतः अर्जुन के लिए किसा भी शत्रु से भय का कोई कारण नहीं था ।   इससे भी अधिक इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण निर्देश देने के लिए साक्षात उपस्थित थे । इस प्रकार अर्जुन को युद्ध करने के मामले में सारा सत्परामर्श प्राप्त था । ऐसी स्थितियों में , जिनकी व्यवस्था भगवान ने अपने शाश्वत भक्त के लिए की थी , निश्चित विजय के लक्षण स्पष्ट थे ।

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्येरथंस्थापय       मेऽच्युत ।         

वदेतानिरीक्षेऽहं    योद्धकामानवस्थितान् ॥ २१ ॥         

कैमया        सहयोद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा ; सेनयोः – सेनाओं के ; उभयोः – दोनों ; मध्ये – बीच में ; रथम् – रथ को ; स्थापय – कृपया खड़ा करें ; मे – मेरे ; अच्युत – हे अच्युत ; यावत् – जब तक ; एतान् – इन सब ; निरीक्षे – देख संकु ; अहम् – मैं ; युद्ध-कामान – युद्ध की इच्छा रखने वाला को ; अवस्थितान् – युद्धभूमि में एकत्र ; कैः – किन-किन से ; मया – मेरे द्वारा ; सह – एक साथ ; योद्धव्यम् – युद्ध किया जाना है ; अस्मिन् – इस ; रण – संघर्ष , झगड़ा के ; समुद्यमे – उद्यम या प्रयास |  

अर्जुन ने कहा है अच्युत ! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों की इस महान परीक्षा में , जिनसे मुझे संघर्ष करना है , उन्हें देख सकूँ ।

        तात्पर्य : यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् श्रीभगवान है , किन्तु वे अहेतुकी कृपावश अपने मित्र की सेवा में लगे हुए थे । वे अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चकते इसीलिए अर्जन ने उन्हें अच्युत कहा है ।  सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया , अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्बोधित किया गया है ।    

यद्यपि उन्होंने अपने भक्त का सारथी पद स्वीकार किया था , किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही । प्रत्येक परिस्थिति में ये इन्द्रियों के स्वामी श्रीभगवान हृषीकेशम है । भगवान तथा उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यन्त पधर एवं दिव्य होता है । सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान भी भक्त की कुछ न कुछ सेवा करने की कोशिश में रहते हैं ।  

वे इसमें विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं कि वे स्वयं आज्ञादाता न वन अपितु उनके शुद्ध भक्त उन्हें आज्ञा दे । चुँकी वे स्वामी है , अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है ।  किन्तु जव चे देखते हैं कि उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है । तो उन्हें दिव्य आनन्द मिलता है यद्यपि वे समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं ।   

भगवान का भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बन्धु वान्धवों से युद्ध करने की तनिक भी इच्छा न थी , किन्तु दुर्योधन द्वारा शान्तिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा । अतः वह यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक था कि युद्धभूमि में कौन – कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित है   यद्यपि युद्धभूमि में शान्ति प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से देखना चाह रहा था और यह देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुल हुए है ।  

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं    यएतेऽत्रसमागताः ।         

धार्तराष्ट्रस्य        दुर्बुद्धेर्युद्धप्रियचिकीर्षवः ॥ २३ ॥

योत्स्यमानान – युद्ध करने वालों को ; अवेक्षे – देखुँ ; अहम् – मैं ; ये – जो ; एते – ये ; अत्र – यहाँ ; समागताः – एकत्र ; धार्तराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के पुत्र की ; दुर्बुद्धे – दुर्बुद्धि ; युद्धे – युद्ध में ; प्रिय – मंगल ; चिकीर्षवः – चाहने वाले ।    

मुझे उन लोगों को देखने दीजिये जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन ) को प्रसन्न करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये हुए हैं ।

    तात्पर्य :  यह सर्वविदित था कि दुर्योधन अपने पिता धतराष्ट्र की साँठगाँठ से पापपूर्ण योजनाएं बनाकर पाण्डवों के राज्य को हड़पना चाहता था । अतः जिन समस्त लोगों ने दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया था ये उसी के समानधर्मा रहे होंगे ।  

अर्जुन युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व यह तो जान ही लेना चाहता था कि कोन कोन से लोग आये हुए है । किन्तु उनके समक्ष समझौता का प्रस्ताव रखने की उसकी कोई योजना नहीं थी ।   यह भी तथ्य था कि वह उनकी शक्ति का , जिसका उसे सामना करना था , अनुमान लगाने की दृष्टि से उन्हें देखना चाह रहा था , यद्यपि उसे अपनी विजय का विधास था क्योंकि कृष्ण उसकी बगल में विराजमान थे ।

सञ्जय उवाच

एवमुक्तो    हषीकेशो   गुडाकेशेन     भारत ।       

सेनयोरुभयोर्मध्ये    स्थापयित्वा    रथोत्तमम् ॥ २४ ॥

सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा ; एवम् – इस प्रकार ; उक्तः – कहे गये ; हषीकेशः – भगवान् कृष्ण ने ; गडाकेशेन – अर्जुन द्वारा ; भारत – भारत के वंशज ; सेनयोः – सेनाओं के ; उभयोः – दोनों ; मध्ये – मध्य में ; स्थापयित्वा – खड़ा करके ; रथ-उत्तमम् – उस उत्तम रथ को ।    

संजय ने कहा है भरतवंशी ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया ।

        तात्पर्य : इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है । गडाका का अर्थ है नींद और जो नींद को जीत लेता है वह गुडाकेश । नौद का अर्थ अनजान भी है । अतः अर्जुन ने कृष्ण की मित्रता के कारण नींद तथा अज्ञान दोनों पर विजय प्राप्त की थी । कृष्ण के भक्त के रूप में वह कृष्ण को क्षण भर भी नहीं भूला पाया क्योंकि भक्त का स्वभाव ही ऐसा होता है ।   

यहाँ तक कि चलते अथवा सोते हुए भी कृष्ण के नाम , रूप , गुणों तथा लालाओं के चिन्तन से भक्त कभी मुक्त नहीं रह सकता । अतः कृष्ण का भक्त उनका निरन्तर चिन्तन करते हुए नींद तथा अज्ञान दोनों को जीत सकता है । इसी का कृष्णभावनामृत या समाधि कहते है

प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा मन के निर्देशक अर्थात हृषीकेश के रूप में कृष्ण अर्जुन के मन्तव्य को समझ गये कि वह क्यों सेनाओं के मध्य में रथ को खड़ा करवाना चाहता है । अतः उन्होंने वैसा ही किया और फिर वे इस प्रकार बोले ।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः   सर्वेषां   चमहीक्षिताम् ।       

  उवाच       पार्थपश्येतान्समवेतान्कुरूनिति ॥ २५ ॥

भीम – भीम पितामह ; द्रोण – गुरु द्रोण ; प्रमुखतः – के समक्ष ; – भी ; मही सिताम् – संसार भर के राजा ; उवाच – कहा ; पार्थ – है पृथा के पुत्र ; पश्य – देखो ; एतान् – इन सयों को ; समवेता – एकत्रित ; करून – कुरुवंश के सदस्यों को ; इति – इस प्रकार ।    

भीष्म , द्रोण तथा विध भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान ने कहा कि हे पार्थ ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो ।

       तात्पर्य :   समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप भगवान कृष्ण यह जानते थे कि अर्जन के मन में क्या बीत रहा है इस प्रसंग हषीकेश शब्द का प्रयोग सचित करता है कि ये सब कुछ जानते थे ।  इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात् पृथा या कुन्तीपुत्र भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्त्वपूर्ण है ।   

मित्र के रूप में वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि कि अर्जुन उनके पिता वसुदेव की बहन पृथा का पुत्र था इसीलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था।   किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से ” कुरुओं को देखो ” कहा तो इससे उनका क्या अभिप्राय था ? क्या अर्जुन वहीं पर रुक कर युद्ध करना नहीं चाहता था ?

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थःपितृनथ      पितामहान ।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पात्रान्सखींस्तथा   ।         

श्वशुरान्सुहदश्चैव                  सेनयोरुभयोरपि ॥ २६ ॥

तत्र – वहाँ ; अपश्यत्– देखा ; स्थितान् – खा ; पार्थः – पार्थ ने ; पितुन – पितरों को ; अथ – भी ; पितामहान – पितामहों को ; आचार्यान् – शिक्षकों को ; मातुलान् – मामाओं को ; भ्रातृन् – भाइयों को ; पत्रान – पुत्रों को ; पोत्रान – पौत्रों को ; सखीन् – मित्रों को ; तथा – ओर ; श्वशुरान – श्वसुरों को ; सृहदः – शुभचिन्तकों को ; – भी ; एव – निश्चय ही ; सेनयोः – सेनाओं के ; उभयो: – दोनों पक्षा की ; अपि – सहित ।    

अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा – ताउओं , पितामहों , गुरुओं , मामाओं , भाइयों , पुत्रों , पात्रों , मित्रों , ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा ।

    तात्पर्य :   अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका । यह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों , भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों , द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं , शल्य तथा शकुनि जेसे मामाओं , दुर्योधन जैसे भाइयों , लक्ष्मण जेसे पुत्रों , अश्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका ।

वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके अनेक मित्र थे ।कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी । इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र की मनःस्थिति की पूर्वसूचना परिहासवश दी है ।

तान्समीक्ष्य   स   कोन्तेयः  सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।         

कृपया         परयाविष्टो          विषीदन्निदमब्रवीत्॥ २७ ॥

तान – उन सब को   ;   समीक्ष्य – देखकर    ;   स: – यह   ;   कोन्तयः – कुन्तीपुत्र   ;    सर्वान – सभी प्रकार के   ;    बन्धन– सम्बन्धियों को   ;   अवस्थितान् – स्थित    ;    कृपया – दबावश    ;    परया – अत्यधिक   ;   आविष्ट : -अभिभूत    ;    विषीदन् – शोक करता हुआ    ;    इदम् – इस प्रकार   ;   अब्रवीत् – बोला ।    

जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला ।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1.3 ~ अर्जुन के शस्त्रों की परीक्षा / Powerful Bhagavad Gita Arjun shatrpriksha Ch1.3
भगवद गीता अध्याय 1.3

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