अध्याय एक (Chapter -1)
भगवद गीता अध्याय 1.2 ~ युद्ध शंखनाद में शलोक 12 से शलोक 19 तक दोनों सेनाओं के शूरवीरों और अन्य महान वीरों के द्वारा किए गए युद्ध शंखनाद वर्णन किया गया है !
भगवद गीता अध्याय 1.2
तस्य सञ्जनयन्ह कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२ ॥
तस्य – उसका ; सञ्जनयन् – बढाते हुए ; हर्षम्– हर्ष ; करु – वृद्धः – करुवंश के वयोवाद ( भीम ) ; पितामहः – पितामह ; सिंह -नादं– सिंह की सी गर्जना ; विनद्य – गरज कर ; उचै: – उच्च स्बर से ; शङ्गम् – शंख ; दध्यो– बजाया ; प्रताप – वान् – बलशाली ।
तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह – गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ ।
तात्पर्य : कुरुवंश के वयोवृद्ध पितामह अपने पौत्र दुर्योधन का मनोभाव जान गये और उसके प्रति अपनी स्वाभाविक दयावश उन्होंने उसे प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त उच्च स्वर से अपना शंख बजाया जो उनकी सिंह के समान स्थिति के अनुरूप था ।
अप्रत्यक्ष रुपमशंख के द्वारा प्रतीकात्मक ढंग से उन्होंने अपने हताश पोत्र दुर्योधन को वता दिया कि उन्हें पद में विजय की आशा नहीं है क्योंकि दसरे पक्ष में साक्षात भगवान श्रीकृष्ण है । फिर भी युद्ध का मार्गदर्शन करना उनका कर्तव्य था और इस सम्बन्ध में । वे कोई कसर नहीं रखेंगे ।
ततःशङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसेवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
ततः – तत्पश्चात् ; शङ्काः – शंख ; च – भी ; भेर्यः – बड़े-बड़े ढोल , नगाड़े ; च – तथा ; पणव-आनक – दोल तथा मृदंग ; गोमुखा: – शृंग ; सहसा – अचानक ; एव – निश्चय ही ; अभ्यहन्यन्त– एक साथ बजाये गये ; स : – वह ; शब्दः – समवेत स्वर ; तुमुलः – कोलाहलपूर्ण ; अभवत् – हो गया ।
तत्पश्चात् शंख , नगाड़े , बिगुल , तुरही तथा सीग सहसा एकसाथ बज उठे । वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था ।
ततःश्वेतैर्हयैर्युक्ते महतिस्यन्दने स्थिती ।
माधवःपाण्डवश्चैव दिव्या शडी प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥
ततः – तत्पश्चात् ; श्वेतै: – श्वेत ; हयः – घोड़ों से ; युक्ते– युक्त ; महति – विशाल ; स्यन्दने– रथ में ; स्थितौ– आमीन ; माधवः – कृष्ण ( लक्ष्मीपति ) ने ; पाण्डवः – अर्जुन ( पाण्डपुत्र ) ने ; च – तथा ; एव – निश्चय ही ; दिव्यों – दिव्य ; शङ्काः – शंख ; प्रदध्मतुः– वजाये ।
दूसरी ओर से घेत घोडों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने – अपने दिव्य शंख बजाये ।
तात्पर्य : भीष्मदेव द्वारा वजाये गये शंख की तुलना में कृष्ण तथा अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है । दिव्य शंखों के नाद से यह सूचित हो रहा था कि दूसरे पक्ष की विजय की कोई आशा न थी क्योंकि कृष्ण पाण्डवों के पक्ष में थे ।
जयस्तु पाण्डुपुत्राणा यंषा पक्षे जनार्दनः – जय सदा पाण्डू के पुत्र – जैसों की होती है क्योकि भगवान कृष्ण उनके साथ है । और जहाँ जहाँ भगवान् विद्यमान हैं , वहीं वहीं लक्ष्मी भी रहती हैं क्योंकि वे अपने पति के बिना नहीं रह सकतीं ।
अतः जैसा कि विष्णू या भगवान कृष्ण के शंख द्वारा उत्पन्न दिव्य ध्वनि से सूचित हो रहा था , विजय तथा श्री दोनों ही अर्जुन की प्रतीक्षा कर रही थी । इसके अतिरिक्त , जिस रथ में दोनों मित्र आसीन थे वह अर्जुन को अग्नि देवता द्वारा प्रदत्त था और इससे सूचित हो रहा था कि तीनों लोकों में जहाँ कहीं भी यह जायेगा , यहाँ विजय निश्चित है ।भ
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तंधनञ्जयः ।
पौण्ड्रंदध्मौमहाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५ ॥
पाञ्चजन्यम् – पाञ्चजन्य नामक ; हषीकेशः – हुपीकेश किया जो भक्तों की इन्द्रियों को निर्देश करते है ; देवदत्तम् – देवदत्त नामक शंख ; धनम् – जयः – धनजय ( अर्जुन , धन को जीतने वाला ) ने ; पोण्डम– पोण्ड नामक शंख ; दध्मो – बजाया ; महा-शङ्ख – भीषण शंख ; भीम-कर्मा – अतिमानवीय कर्म करने वाले ; वृक – उदर: – ( अतिभोजी ) भीम ने ।
भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड नामक भयंकर शंख बजाया ।
तात्पर्य : इस श्लोक में भगवान् कृष्ण को हृषीकेश कहा गया है क्योंकि ये ही समस्त इन्द्रियों के स्वामी है । सारे जीव उनके भिन्नाश है अतः जीवों की इन्द्रियाँ भी उनकी इन्द्रियों के अंश है ।
चूंकि निर्विशेषवादी जीवों की इन्द्रियों का कारण बताने में असमर्थ है इसीलिए वे जीवों को इन्द्रियरहित या निर्विशेष कहने के लिए उत्सुक रहते हैं । भगवान समस्त जीवों के हृदयों में स्थित होकर उनकी इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं । किन्तु वे इस तरह निर्देशन करते हैं कि जीव उनकी शरण ग्रहण कर ले और विशद भक्त की इन्द्रियों का तो वे प्रत्यक्ष निर्देशन करते हैं ।
यहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान कृष्ण अर्जुन की दिव्य इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं इसीलिए उनको हृषीकेश कहा गया है । भगवान् के विविध कार्यों के अनुसार उनके भिन्न – भिन्न नाम हैं ।
उदाहरणार्थ, इनका एक नाम मधुसूदन है क्योंकि उन्होंने मधु नाम के असुर को मारा था , वे गोवों तथा इन्द्रियों को आनन्द देने के कारण गोविन्द कहलाते हैं , बसुदेव के पुत्र होने के कारण इनका नाम वासुदेव है , देवकी को माता रूप में स्वीकार करने के कारण इनका नाम देवकीनन्दन है ,वृन्दावन में यशोदा के साथ वाल – लीलाएँ करने के कारण ये यशोदानन्दन है , अपने मित्र अर्जन का सारधी बनने के कारण पार्थसारथी है ।
इसी प्रकार उनका एक नाम हृषीकेश है . क्योंकि उन्होंने करुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन का निर्देशन किया । इस लोक अर्जन को धनजय कहा गया है क्योंकि जब इनके बड़े भाई को विभिन्न यज्ञ सम्पन्न करने के लिए धन की आवश्यकता हई थी तो उसे प्राप्त करने में इन्होंने सहायता की थी । इसी प्रकार भीम भीम वृकोदर कहलाते हैं क्योंकि जैसे वे अधिक खाते ।
उसी प्रकार व अतिमानवीय कार्य करने वाले हैं , जैसे हिडिवासुर का वध । पाण्डवो के पक्ष में श्रीकृष्ण इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैनिकों के लिए अत्यन्त प्रेरणाप्रद था । विपक्ष में ऐसा कुछ न था न तो परम निदेशक भगवान कृष्ण थे , न ही भाग्य की देवी ( श्री ) थी । अतः युद्ध में उनकी पराजय पूर्वनिश्चित थी शंखों की ध्वनि मानो यही सन्देश दे रही थी ।
अनन्तविजयंराजाकुन्तीपुत्रोयुधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पको ॥ १६ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥ १७ ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्चमहाबाहुःशङ्खान्दध्मःपृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
अनन्त – विजयम् – अनन्त विजय नाम का शंख ; राजा – राजा ; कन्ती-पुत्रः – कुन्ती के पुत्र ; युधिष्ठिरः – युधिष्ठिर ; नकुलः – नकुल ; सहदेवः – सहदेव ने ; च – तथा ; सुघोष-मणिपुष्पको – सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख ; काश्यः – काशी ( वाराणसी ) के रजा ने ; च – तथा ; परम-इंषु आसः – महान धनुर्धर ; शिखण्डी – शिखण्डी ने ; च – भी ; महा-रथ: – हजार से अकेले लड़ने वाले ; धृष्टद्युम्नो – धृष्टद्युम्नो ( राजा द्रुपद क पुत्र) ;
बिराट: – विराट ( राजा जिसने पाण्डवों को उनके अज्ञात वास के समय शरणदी ) ने ; च – भी ; सात्यकिः – पात्यकि विधान श्रीकृष्ण के साथी ने ; च – तथा; अपराजितः – कभी न जीता जाने वाला , सदा विजयी ; दुपद – पंचाल के राजा ने ; द्रौपदेयाः – द्रोपदी के पुत्रों ने ; च – भी ; सर्वशः – सभी ; पृथिवी-पते – है राजा ; सोभद्रः – सुभद्रापुर अभिमन्यु ने ; च – भी ; महा-बाहः – विशाल भुजाओं वाला ; शवान् – शंख ; दध्मः – बजाए ; पृथक् पृथक् – अलग अलग ।
हे राजन ! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये । महान धनुर्धर काशीराज , परम योद्धा शिखण्डी , धृष्टद्युम्न , विराट , अजेय सात्यकि , दुपद , द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबों ने अपने अपने शंख बजाये ।
तात्पर्य : संजय ने राजा धृतराष्ट्र को अत्यन्त चतुराई से यह बताया कि पाण्डू के पुत्रों को धोखा देने तथा राज्यसिंहासन पर अपने पुत्रों को आसीन कराने की यह अविवेकपूर्ण नीति श्लाघनीय नहीं थी । लक्षणों से पहले से ही यह सूचित हो रहा था कि इस महायुद्ध में सारा कुरुवंश मारा जायेगा ।
भीष्म पितामह से लेकर अभिमन्यु तथा अन्य पोत्रों तक विश्व के अनेक देशों के राजाओं समेत उपस्थित सारे के सारे लोगों का विनाश निश्चित था । यह सारी दुर्घटना राजा धृतराष्ट्र के कारण होने जा रही थी क्योंकि उसने अपने पुत्रों की कुनीति को प्रोत्साहन दिया था ।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैवतुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥ १९ ॥
स: – उस ; घोषः – शब्द ने ; धार्तराष्ट्राणाम – धृतराष्ट्र के पुत्रों के ; हदयानि – हृदयों को ; व्यवारयत् – विदीर्ण कर दिया ; नभः – आकाश ; च – भी ; पृथिवीम् – पृथ्वोतल को ; च – भी ; एव – निश्चय ही ; तमुलः – कोलाहलपुर्ण ; अभ्यनुनादयन् – प्रतिध्वनित करता , शब्दायमान करता ।
इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगी ।
तात्पर्य : जब भीष्म तथा दुर्योधन के पक्ष के अन्य वीरों ने अपने अपने शंख बजाये तो पाण्डवों के हृदय विदीर्ण नहीं हुए । ऐसी घटनाओं का वर्णन नहीं मिलता किन्तु इस विशिष्ट श्लोक में कहा गया है कि पाण्डव पक्ष के शंखनाद से धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण हो गये ।