अध्याय एक (Chapter -1)
भगवद गीता अध्याय 1.1 ~ सैन्यनिरीक्षण , शलोक 1 से शलोक 11 तक दोनों सेनाओं के शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन किया गया है !
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रउवाच– राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म – क्षेत्रे – धर्मभूमि ( तीर्थस्थल ) में ; कुरु-क्षेत्रे – कुरुक्षेत्र नामक स्थान में; समवेता: – एकत्र ;युयुत्सवः – युद्ध करने की इच्छा से , मामकाः – मेरे पक्ष ( पुत्री) पाण्डवाः – पाण्डु के पुत्रों ने ;च– तथा , एव – निश्चय ही ,किम् – क्या ; अकुर्वत – किया , सञ्जय – है संजय ।
धृतराष्ट्र ने कहा है संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
तात्पर्य: भगवदगीता एक बहुपठित आस्तिक विज्ञान है जो गीता – माहात्म्य में सार रूप दिया हुआ है । इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवदगीता का अध्ययन करे और स्बार्थप्रेरितव्याख्याओं के बिना उसे समझने का प्रयास करे ।
अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात भगवान कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया , इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भगवदगीता में ही है । यदि उसी गुरु – परम्परा से , निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए विना , किसी को भगवदगीता समझने का सौभाग्य प्राप्त होता वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है ।
पाठक को भगवदगीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मिलेंगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेगी जो अन्यंत्र कहीं उपलब्ध नहीं है । यही गीता का विशिष्ट मानदण्ड है । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है । महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र तथा संजय की बार्ताएँ इस महान दर्शन के मूल सिद्धान्त का कार्य करती है ।
भगवद गीता–अध्याय 1 में जिसका उल्लेख माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई जो बैदिक युग से पवित्र तीर्थस्थल रहा है । इसका प्रवचन भगवान द्वारा मानव जाति के पथ – प्रदर्शन हेतु तब किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे । धर्मक्षेत्र शब्द सार्थक है , क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन के पक्ष में श्रीभगवान स्वयं उपस्थित थे । कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की सम्भावना के विषय में अत्यधिक संदिग्ध था ।
अत : इसी सन्देह के कारण उसने अपने सचिव से पूछा , ” उन्होंने क्या किया ? ” वह आश्वस्त था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पाण्डू का पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में निर्णयात्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं । फिर भी उसका जिनासा सार्थक है । यह नहीं चाहता था कि भाइयों में कोई समझोता हो , अत वा यभूमि में अपने पुत्रों की नियति ( भाग्य , भावी ) के विषय में आश्वस्त होना चाह रहा था ।
जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग निवासियों के लिए भी तीर्थस्थल के रूप में हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर न जाने कैसा प्रभाव पडे । उसे भलीभांति ज्ञात था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पाण्ड के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से वे सभी पुण्यात्मा थे ।
संजय श्री व्यास का शिष्य था , अतः उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र के कक्ष में बैठे – बैठे कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल का दर्शन कर सकता था । इसीलिए धृतराष्ट्र ने उससे युद्धस्थल की स्थिति के विषय में पूछा । पांडव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र , दोनों ही एक वश से सम्बन्धित , किन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं ।
उसने जान – बुझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा ओर पाण्डू के पुत्रों को बंश के उत्तराधिकार से विलग कर दिया । इस तरह पाण्डु के पुत्र अर्थात् अपने भतीजों के साथ धृतराष्ट्र की विशिष्ट मन: स्थिति समझी जा सकती है ।
जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पौधों को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहाँ धर्म के पिता श्रीकृष्ण उपस्थित हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितान्त धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जावेगी । यहाँ धर्मक्षेत्रे तथा कुरुक्षेत्रे शब्दों की , उनकी ऐतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त , यही सार्थकता है ।
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २ ॥
सञ्जय उवाच – संजय न कहा ; दृष्ट्वा – देखकर ; तु– लेकिन ; पाण्डव – अनीकम् – पाडवों की सेना को , व्यूढम् – व्यूहरचना को ; दुर्योधनः– राजा दुर्योधन ने ; तदा – उस समय ; आचार्यम्– शिक्षक , गुरु के ; उपसंगम्य – पास जाकर ; राजा – राजा ; वचनम् – शब्द ; अब्रवीत – कहा ।
संजय ने कहा है राजन् ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे ।
तात्पर्य : धृतराष्ट्र जन्म से अन्धा था । दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी बंचित था । वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पाण्डवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पायंगे क्योंकि पाँचों पाण्डव जन्म से ही पवित्र थे ।
फिर भी उसे तीर्थस्थान के प्रभाव के विषय में सन्देह था । इसीलिए संजय युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया । अतः वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था । उसने उसे विश्वास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे है ।
उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योंधन पाण्डवों की सेना को देखकर तुरन्त अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया । यद्यपि दुर्योंधन को राजा कह कर सम्बोधित किया गया है तो भी स्थिति की गम्भीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा । अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था । किन्तु जब उसने पाण्डवों को व्युहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपा न पाया ।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३ ॥
पश्य – देखिये ; एताम् – इस ; पाण्ड – पुत्राणाम् – पादु के पुत्रों की ; आचार्य– हे आचार्य ( गुरु ) ; महतीम – विशाल ; चमूम् – सेना को ; व्यूढाम्– व्यवस्थित ; पद – पुत्रेण – द्रुपद के पुत्र द्वारा ; तव– तुम्हारे ; शिष्येण – शिष्य द्वारा ; धी – मता – अत्यन्त बुद्धिमान ।
हे आचार्य ! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखें , जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य दुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है।
तात्पर्य : परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन महान ब्राह्मण सेनापति द्रोणाचार्य के दोषों को इंगित करना चाहता था । अर्जुन की पत्नी द्रोपदी के पिता राजा द्रुपद के साथ द्रोणाचार्य का कुछ राजनीतिक झगड़ा था । इस झगड़े के फलस्वरूप द्रुपद ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिससे उसे एक ऐसा पत्र प्राप्त होने का वरदान मिला जो द्रोणाचार्य का वध कर सके ।
द्रोणाचार्य इसे भलीभांति जानता था किन्तु जब दुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न युद्धशिक्षा के लिए उसको सौंपा गया तो द्रोणाचार्य को उसे अपने सारे सैनिक रहस्य प्रदान करने में कोई झिझक नहीं हुई । अब धृष्टद्युम्न कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में पाण्डवों का पक्ष ले रहा था और उसने द्रौणाचार्य से जो कला सीखी थी उसी के आधार पर उसने पर यूहरचना की थी ।
दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की इस दुर्वलता की ओर इंगित किया जिससे वह युद्ध में सजग रहे और समझौता न करे । इसके द्वारा वह द्रोणाचार्य को यह भी वताना चाह रहा था कि कहीं वह अपने प्रिय शिष्य पाण्डवों के प्रति युद्ध में उदारता न दिखा बैठे । विशेष रूप से अर्जुन उसका अत्यन्त प्रिय एवं तेजस्वी शिष्य था । दुर्योधन ने यह भी चेतावनी दी कि युद्ध में इस प्रकार की उदारता से हार हो सकती है ।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानों विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४ ॥
अत्र– यहां ; शूराः – वीर ; महा-इषु-आसाः – महान धनुर्धर ; भीम-अर्जन – भीम तथा अर्जुन ; समाः – के समान ; युधि – युद्ध में ; युयुधान – युयुधान ; विराटः – विराट ; च– भी ; दुपदः – दुपद ; च – भी ; महारथः – महान योद्धा ।
इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक बीर धनुर्धर है यथा महारथी युयुथान , विराट तथा दुपद ।
तात्पर्य : यद्यपि युद्धकला में द्रोणाचार्य की महान शक्ति के समक्ष धृष्टद्युम्न महत्वपूर्ण वाधक नहीं था किन्तु ऐसे अनेक योद्धा थे जिनसे भय था । दुर्योधन इन्हें विजय – पथ में अत्यन्त वाधक बताता है क्योंकि इनमें से प्रत्येक योद्धा भीम तथा अर्जुन के समान दुर्जेय था । उसे भीम तथा अर्जुन के बल का ज्ञान था , इसीलिए वह अन्यों की तुलना इन दोनों से करता है ।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥ ५ ॥
धृष्टकेतु – धृष्टकेतु ; चकितानः – चकितान ; काशिराजः– काशिराज ; च – भी ; बीर्यवान– अत्यन्त शक्तिशाली ; पुरुजित् – पुरुजितः ; कुन्तिभोजः – कुन्तिभोज ; च – तथा ; शैब्य: – शैब्य: ; च – तथा ; नरपुङ्गवः – मानव समाज में वीर ।
इनके साथ ही धृष्टकेतु , चेकितान , काशिराज , पुरुजित ,कन्तिभोज तथा शेव्य जैसे । महान शक्तिशाली योद्धा भी हैं ।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ ६ ॥
युधामन्युः – युधामन्युः ; च – तथा ; विक्रान्तः – पराक्रमी ; उत्तमोजाः – उत्तमोजा ; च – तथा ; बीर्यवान् – अत्यन्त शक्तिशाली ; सोभद्रः – सुभदा का पुत्र ; द्रौपदेयाः – द्रोपदी के पुत्र ; च – तथाः ; सर्व – सभी ; एव – निश्चय ही ; महारथाः– महारथी ।
पराक्रमी युधामन्यु , अत्यन्त शक्तिशाली उत्तमौजा , सुभद्रा का पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र – ये सभी महारथी हैं ।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ ७ ॥
अस्माकम् – हमारे ; त – लेकिन ; विशिष्टाः– विशेष शक्तिशाली ; ये – जो ; तान्– उनको ; निबोध – जरा जान लीजिये , जानकारी प्राप्त कर ले ; द्विज – उत्तम – हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ; नायकाः – सेनापति , कप्तान ; मम – मेरी ; सैन्यस्य – सेना के ; संज्ञा – अर्थम् – सुचना के लिए ; तान्– उन्हें ; ब्रवीमि – बता रहा हूँ ; ते – आपको ।
किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण है ।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ ८ ॥
भवान – आप ; भीष्मः – भीष्म पितामह ; च – भी ; कर्ण : – कर्ण ; च – और ; कृपः – कृपाचार्य ; च– तथा ; समितिञ्जयः – सदा संग्राम – विजयी ; अश्वत्थामा – अश्वत्थामा ; विकर्णः – विकर्ण ; च – तथा ; सोमदतिः – सोमदत्त का पुत्र ; तथा – भी ; एव – निश्चय ही ; च – भी ।
मेरी सेना में स्वयं आप , भीष्म , कर्ण , कृपाचार्य , अश्वत्थामा , विकर्ण तथा सोमवत्त । का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो बुद्ध में सदैव विजयी रहे हैं ।
तात्पर्य : दुर्योधन उन अद्वितीय युधवीरों का उल्लेख करता है जो सदैव विजयी होते रहे हैं । विकर्ण दर्योधन का भाई है , अश्वत्थामा द्रोणाचार्य का पुत्र है और सोमदति या भूरिश्रवा बाहलीकों के राजा का पुत्र है । कर्ण अर्जुन का आधा भाई है क्योंकि वह कुन्ती के गर्भ से राजा पाण्डु के साथ विवाहित होने के पूर्व उत्पन्न हुआ था । कृपाचार्य की जुड़वा बहन द्रोणाचार्य को व्याही थी ।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ९ ॥
अन्ये – अन्य सब ; च – भी ; बहवः – अनेक ; शूराः– वीर ; मत् – अर्थे – मेरे लिए ; त्यक्त – जीविता : – जीवन का उत्सर्ग करने वाले ; नाना – अनेक ; शस्त्र– आयुध ; प्रहरणाः – से युक्त , सुसज्जित ; सर्वे – सभी ; युद्ध विशारदाः – युद्धविद्या में निपुण ।
ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्यत हैं । वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युद्धविद्या में निपुण है ।
तात्पर्य : जहाँ तक अन्यों का – यथा जयद्रथ , कृतवर्मा तथा शल्य का सम्बन्ध है वे सब दुर्योधन के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहते थे । दूसरे शब्दों में , वह पूर्वनिश्चित है कि वे अब पापी दर्योधन के दल में सम्मिलित होने के कारण कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारे जायेंगे । निस्सन्देह अपने मित्रों की संयुक्त – शक्ति के कारण दुर्योधन अपनी विजय के प्रति आश्वस्त था ।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १०॥
अपर्याप्तम् – अपरिमेय ; तत् – वहः ; अस्माकम् – हमारी ; बलम्– शक्ति ; भीष्म – भीष्म पितामह द्वारा अभिरक्षितम् – भलीभांति संरक्षित ; पर्याप्तम्– सीमित ; तु – लेकिन ; इदम् – यह सब ; एतेषाम्– पाण्डवों की ; बलम् – शक्ति ; भीम – भीम द्वारा ; अभिरक्षितम्– भलीभांति सुरक्षित ।
हमारी शक्ति अपरिमेय है और हम सब पितामह द्वारा भलीभांति संरक्षित है , जबकि पाण्डवोंकी शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति संरक्षित होकर भी सीमित है ।
तात्पर्य : यहाँ पर दुर्योधन ने तुलनात्मक शक्ति का अनुमान प्रस्तुत किया है । यह सोचता है कि अत्यन्त अनुभवी सेनानायक भीष्म पितामह कद्वारा विशेष रूप स सरक्षित होना के कारण उसकी सशस्त्र सेनाओं की शक्ति अपरिमेय है । दूसरी ओर पाण्डवों की सेनाएं सीमित हैं क्योंकि उनको सुरक्षा एक कम अनुभवी नायक भीम द्वारा की जा रही है जो भीष्ण की तुलना में नगण्य है ।
दुर्योधन सदेव भीम से ईष्या करता था क्योंकि वह जानता था कि यदि उसकी मृत्यु कभी हई भी तो वह भीम के द्वारा ही होगी ।किन्तु साथ ही उसे दृढ विश्वास था कि भीष्ण की उपस्थिति में उसकी विजय निश्चित है क्योंकि भीष्म कहीं अधिक उत्कृष्ट सेनापति हैं । वह युद्ध में विजयी होगा यह उसका दृढ़ निश्चय था
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११ ॥
अयनेषु – मांच में ; च– भी ; सर्वेषु – सर्वत्र ; यथा – भागम् – अपने – अपने स्थानों पर ; अवस्थिताः – स्थित ; भीष्मम् – भीम पितामह की ; एव– निश्चय ही ; अभिरक्षन्त – सहायता करनी चाहिए ; भवन्तः – आप ; सर्वे – सब के साथ ; एव हि – निश्चय ही ।
अतएव सैन्यव्यूह में अपने – अपने मोचों पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी – पूरी सहायता दें ।
तात्पर्य : भीष्म पितामह के शोर्य को प्रशंसा करने के बाद दुर्योधन ने सोचा कि कहीं अन्य योदा यह न समझ लें कि उन्हें कम महत्व दिया जा रहा है अतः दुर्योधन ने अपने सहज कूटनीतिक ढंग से स्थिति संभालने के उद्देश्य से उपर्युक्त शब्द कहे ।
उसने बलपूर्वक कहा कि भीष्मदेव निस्सन्देह महानतम योद्धा है किन्तु अब वे वृद्ध हो चुके है अतः प्रत्येक सैनिक को चाहिए कि चारों ओर से उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखें । हो सकता है कि वे किसी एक दिशा में युद्ध करने में लग जायं ओर शत्रु इस व्यस्तता का लाभ उठा ले । अतः यह आवश्यक है कि अन्य योदा मोचों पर अपनी – अपनी स्थिति पर अडिग रहे और शत्रु को व्यूह न तोड़ने दें ।
दुर्योधन को पूर्ण विश्वास था कि कुरुओं की विजय भीष्मदेव की उपस्थिति पर निर्भर है । उसे युद्ध में भीष्मदेव तथा द्रोणाचार्य के पूर्ण सहयोग की आशा थी क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि इन दोनों ने उस समय एक शब्द भी नहीं कहा था जब अर्जुन की पन्नी द्रौपदी को असहायावस्था में भरी सभा में नग्न किया जा रहा था और जब उसने उनसे न्याय की भीख मांगी थी ।
भगवद गीता अध्याय 1.1 सैन्यनिरीक्षण में यह जानते हुए भी कि इन दोनों सेनापतियों के मन में पाण्डवों के लिए स्नेह था , दुर्योधन को आशा थी कि वे इस स्नेह को उसी तरह त्याग दंगे जिस तरह उन्होंने घूत-क्रीड़ा के अवसर पर किया था ।